कविताएं


1.

काश! ये धरती थरथराये,
एक ऐसा भूकंप आए ,
जान किसी की न जाए,
बस तेरा शहर मेरे शहर से मिल जाए।

मयंक


2

मेरी तनहा इयांये मेरी तनहाइयां मुझे बहुत सताती हैं
रात तो छोडो अब ये दिन में भी चली आती हैंएक अपने की तलाश में हर रोज घुमाती हैं
फिर इस शहर में तनहा सा एहसास कराती हैं

ये मंजिल को दूर और रास्तों को तनहा बताती हैं
कभी दोस्त,कभी यार तो कभी प्यार को तरसाती हैं
ये दूर खड़ी मुस्काती हैं और इशारों से बुलाती हैं
ये आंसू पीना सिखाती हैं और झूठी हंसी हंसाती हैं


मयंक


3.
 चाँद सूरज के इंतजार में हर रात जागता है
सुबह जब सूरज आता है चाँद सो जाता है


मयंक


4.

Adhoora ansuna hi reh gaya yun pyar ka kissa,
Kabhi tum sunn nahin paaye, kabhi main keh nahin paaya




 5.


सूरज को शायद सूरज होे का गुरूर है
चाँद को फिर भी लगता सूरज मजबूर है
सच बता सूरज तू मजबूर है
या ये बादलों का कुसूर है

मयंक

6.
हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दमिकले
बहुतिकले मेरे अरमाँ, लेकिफिर भी कमिकले

डरे क्यों मेरा कातिल क्या रहेगा उसकी गर्दपर
वो खूजो चश्म-ऐ-तर से उम्र भर यूं दम-ब-दमिकले

िकला खुल्द से आदम का सुते आये हैं लेकि
बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हमिकले

भ्रम खुल जाये जालीम तेरे कामत कि दराजी का
अगर इस तुर्रा-ए-पुरपेच-ओ-खम का पेच-ओ-खमिकले

मगर लिखवाये कोई उसको खत तो हमसे लिखवाये

हुई सुबह और घर से कापर रखकर कलमिकले

हुई इस दौर में मसूब मुझसे बादा-आशामी
फिर आया वो जमाा जो जहाँ से जाम-ए-जमिकले

हुई जिसे तव्वको खस्तगी की दाद पा की
वो हमसे भी ज्यादा खस्ता-ए-तेग-ए-सितमिकले

मुहब्बत मेंहीं है फ़र्क जीे और मरे का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दमिकले

जरा कर जोर सिे पर कि तीर-ऐ-पुरसितमिकले
जो वोिकले तो दिलिकले, जो दिलिकले तो दमिकले

खुदा के बासते पर्दाा काबे से उठा जालिम
कहीं ऐसा हो याँ भी वही काफिर सिकले

कहाँ मयखाे का दरवाजा 'गालिब' और कहाँ वाइज़
पर इता जाते हैं, कल वो जाता था के हमिकले

GALIB KI KAVITA HAI MERI NAHIN HAI